गुरुवार, 30 जून 2016

तुम ऐसे ही रिहाई देते हो...

हर रात के आखिरी शब्द में
तुम जो रिहाई देते हो
कुछ मामूली बातों का
थोड़ा खामख्याली सा
शब्दों से
बिना हंसे, बोले
जी को दबा के
मुस्कान को मिटा के,
तुम जो रिहाई देते हो... 
कभी यूँ ही कह दो
रास्तों को मौन सहने दो,
थककर आह से टूटेंगे
जुड़ेंगे न मिटेंगे ...
थोड़ा प्यार की नींद सा
कहे-सुने
तुम जो रिहाई देते हो
कुछ ऐसा भी जी लो
नाहक बर्बादियां समेट लो
अपनी बांहों में,
सलीके से जलती बेताब बातें.. 
मृत्यु से उठती साँसे, 
बार-बार चिपकती गीली रातें।।
रिहाई को मंद-मंद बहने दो...
कुछ ऐसा भी जी लो.. 
कुछ आसान से शब्द,
पत्थर से मिल जाएंगे 
साजिशों की ओट में 
बोझिल सपने भरमाएंगे .... 
बिना कुछ कहे-सुने
तुम ऐसे ही रिहाई देते हो... 










4 टिप्‍पणियां:

  1. गहरी बातें समझ आती हैं जितनी बार पढ़ो ... बहुत खूब ...

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  2. ये तो वैसी ही रिहाई है जिसमे कैद भी रिहाई है या रिहाई भी कैद है. बढ़िया कविता.

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  3. अरे वाह! बहुत ही सुन्दर कविता जितनी भी तारीफ़ की जाए , वो कम है

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  4. बिना कुछ कहे सुने सबकुछ कहती हुई ..

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